जानिए इस देवी ने बचाए थे ब्रह्मा जी के प्राण ?
आपको बता दे कि यह माता कोई नयी नहीं है ये आपको पता हो या नहीं हो ये नवरात्र के सातवें दिन मां दुर्गा के नौ रूपों में से सातवें रूप कालरात्रि की पूजा होती है। और इस देवी का स्वरूप सभी देवियों में से सबसे भयंकर होता है। जबकि भक्तों के लिए माता बहुत ही कल्याणकारी होने के लिए शुभंकरी भी कहलाती हैं।
इनका पुराणों में जिक्र है कि स्याह रात्रि के समान ही माता का स्वरूप भी काला है। कालारात्रि माता गले में विद्युत की माला धारण करती हैं। और इनके बाल खुले हुए हैं और यह गर्दभ की सवारी करती हैं।
अपने देखा होगा जो यह माता है इनके हाथ में कटा हुआ सिर है जिससे रक्त टपकता रहता है। यह भयंकर रूप होते हुए भी माता भक्तों के लिए बहुत ही कल्याणकारी भी है। देवी भाग्वत् में कालरात्रि को आदिशक्ति का तमोगुण स्वरूप भी बताया गया इसलिए इन्हें महाकाली भी कहा जाता है।
कालरात्रि माता के बारे में कहा जाता है कि यह दुष्टों के बाल पकड़कर खड्ग से उसका सिर काट देती हैं। और रक्तबीज से युद्घ करते समय मां काली ने भी इसी तरह से रक्तबीज का वध किया था। मां काली के युद्ध करने का यह तरीका दर्शाता है कि काली और कालरात्रि एक ही हैं। जिन्हे आप माता काली के नाम से जानते हो. कालरात्रि माता भगवान विष्णु की योगनिद्रा भी कही जाती है।
जीवों में मोह माया का एक कारण भी मां कालरात्रि देवी ही हैं। दुर्गासप्तशती के प्रथम चरित्र में यह बताया गया है कि भगवान विष्णु जब सो रहे थे तब उनके कान के मैल से दो भयंकर असुर मधु और कैटभ का जन्म हुआ था। ये दोनों असुर ब्रह्मा जी को मारना चाहते थे। और तभी ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु की योगनिद्रा की आराधना की थी।
ब्रह्मा जी भगवान विष्णु की योगनिद्रा को कालरात्रि, मोहरात्रि के रूप में ध्यान, आराधना की। ब्रह्मा जी की वंदना से देवी कालरात्रि ने भगवान विष्णु को निद्रा से जगाया। एवं भगवान विष्णु ने मधु-कैटभ का वध करके ब्रह्मा जी की रक्षा की।
आपको बता दे की देवी कालरात्रि अपने भक्त के लिए संसार का सब सुख सुलभ कर देती है। जो माता के भक्त संसार में रहते हुए भी मोहमाया से मुक्त हो जाते हैं और साथ ही मृत्यु के बाद उन्हें उत्तम लोक में स्थान की प्राप्ति होती है।
देवी कालरात्रि का ध्यान मंत्र:
करालवंदना धोरां मुक्तकेशी चतुर्भुजाम्।
कालरात्रिं करालिंका दिव्यां विद्युतमाला विभूषिताम॥
दिव्यं लौहवज्र खड्ग वामोघोर्ध्व कराम्बुजाम्।
अभयं वरदां चैव दक्षिणोध्वाघः पार्णिकाम् मम॥
महामेघ प्रभां श्यामां तक्षा चैव गर्दभारूढ़ा।
घोरदंश कारालास्यां पीनोन्नत पयोधराम्॥
सुख पप्रसन्न वदना स्मेरान्न सरोरूहाम्।
एवं सचियन्तयेत् कालरात्रिं सर्वकाम् समृध्दिदाम्।।
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